रतलाम / हमारी साँस्कृतिक विरासत को बनाए रखने के उद्देश्य से लोक पर्व संझा को लेकर पोरवाल सोशल ग्रुप संस्थापक संयोजक राकेश पोरवाल द्वारा दो बत्ती स्थित कार्यालय पर परिचर्चा का आयोजन किया गया जिसमें ग्रुप सदस्यों ने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किये l ग्रुप अध्यक्ष सुनील पोरवाल व सचिव अविनाश पोरवाल ने बताया कि परिचर्चा में भाग लेते हुए पूर्णिमा फरक्या के कहा कि सहेलियों की सहेली है संजा माता, श्राद्ध पक्ष के साथ शुरू होता है 16 दिन का उत्सव, लोकमान्यता में पार्वती जी का रूप हैं संजा माता……..

संजा, संझा या सांझी-

यह लोकपर्व चाहे जिस नाम से प्रचलित हो, लेकिन इतना तो तय है कि इसका सरोकार कुंवारी कन्याओं से ही है !उत्सव का शुभारम्भ भाद्रपद की पूर्णिमा से होता है।उन दिनों श्राद्धपक्ष का भी समय रहता है। कहा जाता है कि सोलह दिनों के लिए संजा माता अपने पीहर लौटती हैं और वहां उनकी सहेलियां उनके साथ ख़ूब हंसी-ठिठोली करती हैं।

संजा का पर्व न सिर्फ़ कला और संस्कृति को साथ लाता है बल्कि लोकगीत की विधा से कन्याओं के आचरण और उनके भावी जीवन से जुड़े संकेतों को भी प्रस्तुत करता है उत्सवों में उत्साह और रस, दोनों स्त्रियों से ही हैं, लेकिन संजा-उत्सव की विशिष्टता यह भी है कि यह महिलाओं को प्रकृति और पर्यावरण से जोड़े रखने का कार्य भी करता है। संजा को रूप देने में आधार गाय का गोबर होता है और उसे पूरित फूल-पत्तियां करती हैं। इसी तरह कच्ची-पक्की दीवारों पर एक कला जन्म लेती है। प्रत्येक दिन एक नई आकृति का निर्माण होता है जिसमें पूनम के दिन पाटला, दूज को बीजारू, छठ को छाबड़ी, सप्तमी को स्वस्तिक और अंतिम दिन किलाकोट बनाया जाता है।

खेल-खेल में गाते हैं गीत :::

पुराने समय में अधिकांश घरों में लड़कियों को बाहर जाकर खेलने की अनुमति नहीं होती थी, ख़ासकर जब उनकी आयु विवाह योग्य हो जाए। ऐसे में संजा के दिनों में जब सहेलियां इकट्‌ठा होकर संजा माता का पूजन करती थीं तो वे लोकगीतों के साथ अंगना में ही बैठकर खेले जाने वाले छोटे-मोटे खेलों को भी इसमें शामिल कर लेती थीं। लड़कियां अपने घरों से प्रसाद को एक डिब्बे में बंद करके लाती थीं और लोकगीत गाते हुए उस डिब्बे में प्रसाद को ऊपर-नीचे करती थीं। प्रसाद की आवाज़ और सुवास से अन्य सहेलियां उस प्रसाद का अनुमान लगाकर बताती थीं और मिल-बांटकर उसे खाया जाता था। अंधेरा होने से पहले लड़कियां अपने घरों को लौट जाती थीं।

पार्वती जी लौटती हैं पीहर:::

जनश्रुतियों के अनुसार, संजा का सम्बंध ब्रह्मा जी की पुत्री से भी बताया जाता है। शिवपुराण में सृष्टि के निर्माता ब्रह्मा जी की पुत्री संध्या के बारे में विवरण है। संध्या ने चंद्रभाग पर्वत पर जाकर शिवजी को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी। श्राद्ध में इस उत्सव को मनाने के पीछे कारण यह माना जाता है कि इन दिनों देवी पार्वती अपनी मायके लौटती हैं। लोकगीतों के बोल से यह भी पता चलता है कि संजा माता विवाह उपरांत ससुराल में ज़्यादा समय तक प्रसन्न नहीं रह पाई हैं।

संजा माता के लिए गाए जाने वाले लोकगीतों में यह बहुत प्रचलित है – छोटी-सी गाड़ी लुढ़कती जाय, जिसमें बैठी संजा बाई सासरे जाय। घाघरो चमकाती जाय, लूगड़ो लटकाती जाय, बिछिया बजाती जाय...एक अन्य गीत इस प्रकार है – संजा बाई का लाड़ाजी, लूगड़ो लाया जाड़ाजी असो कई लाया दारिका, लाता गोट किनारी का। इस गीत को गाते हुए सहेलियां संजा को छेड़ते हुए कह रही हैं कि संजा बाई का दूल्हा मोटा है और वो लूगड़ा लेकर आया है पर ऐसा क्या लूगड़ा ले आए कि उसमें गोटे की लेस ही नहीं है। इस तरह से संजा की सहेलियां ससुराल से आए लूगड़े को लेकर ख़ूब ठिठोली करती हैं। लोकगीतों से किया जाने वाला यह उपहास किसी का भी दिल नहीं दुखाता है।
ममता पोरवाल के कहा कि
संजा पर्व अनंत चतुर्दशी के पश्चात पवित्र श्राद्ध पक्ष की पूर्णिमा से प्रारंभ होकर 15 दिनों तक मनाया जाता है। संजा पर्व मालवा और निमाड़ में बहुत प्रचलित है। पारंपरिक रूप से गाय के गोबर से दीवारों पर प्रत्येक दिन की अलग-अलग आकृति बनाई जाती है और फूल पत्तियों से उसे सजाया जाता है एवं अंतिम दिवस किला कोट बनाया जाता है। प्रतिदिन संध्या काल में कुंवारी कन्याओं द्वारा पूजन अर्चन कर संजा माता के गीत गाए जाते हैं तत्पश्चात आरती उतारी जाती है एवं प्रसादी का भोग लगाकर प्रसाद वितरित किया जाता ।
संजा को माता पार्वती का प्रतीक माना जाता है ऐसी मान्यता है कि 16 दिनों तक चलने वाले इस पर्व में माता पार्वती अपने मायके आती है और अपनी सखियों के साथ खूब हंसी टिटौली करती हैं माता पार्वती को खुश करने के लिए सखियां कई तरह के गीत गाती है। माता पार्वती प्रसन्न होकर अच्छे घर-वर का आशीर्वाद देकर जाती है 16 दिन तक तरह-तरह की प्रसाद बनाकर भोग लगती है। ग्रामीण क्षेत्रों में गोबर से दीवारों पर ही आकृति उकेरी जाती थी लेकिन शहरों में रेडीमेड पेपर पर बनी हुई संजा का उपयोग किया जाने लगा है आज के इस आधुनिक युग में हमारी संस्कृति कहीं विलुप्त होती जा रही है इसे हम सभी को मिलकर पुनः जीवित करना है।
सोनाली पोरवाल ने कहा कि
संजय या सांझी क्या है आज इस अनोखे पर्व के बारे में जानते हैं धर्म का कलात्मक स्वरूप और कल का धार्मिक रूप गोबर और फूलों से बनाई गई एक अत्यंत सुंदर और मनमोहन कल जो कहानियां धार्मिक और वैज्ञानिक आधारों से जुड़ी हुई है मध्य प्रदेश के पवन और गौरवशाली त्योहारों में से एक छोटा सा त्यौहार संजा का भी होता है जो श्राद्ध पक्ष के एकम से लेकर अमावस तक मनाया जाता है संपूर्ण पितृ पक्ष में कुंवारी कन्याओं द्वारा घर के बाहर या या लकड़ी के पतियों पर गोबर से बनाई गई सुंदर कलाकृति जो फूलों से सजाई जाती है और सूर्यास्त के पहले बनकर तैयार हो जाती है उसके बाद लोकगीतों से उसकी आरती उतारी जाती है इसका एक धार्मिक आधार यह है की पार्वती ने शिवजी को प्रसन्न करने के लिए 16 दिनों तक इस व्रत का अनुष्ठान किया था तब से लेकर आज तक यह व्रत कुंवारी कन्याओं में प्रचलित है इन 16 दिनों में संध्या की विभिन्न कलाकृतियां चांद, सूरज , सं जा का झूला ,सीढ़ियां, आदि बनाए जाते हैं और फिर उसे रंग बिरंगी पानियों और फूलों से सजाया जाता है, और 16 ही दिन उसे उतारकर फिर नई-नई आकृतियों से बनाया जाता है और अंत में सभी इकट्ठा कर नदी या तालाब में विसर्जित कर दिया जाता है मध्य प्रदेश की धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत में से यह पर्व अपने आप में न जाने कब से चला आ रहा है और अब इस पर्व को लेकर जागरूकता और उत्साह बढ़ता ही जा रहा है लिए हम सब मिलकर इस पर्व को और अधिक सुरुचि पूर्ण बनाने का प्रयास करें जन जागरण के माध्यम से इन पर्वों को सहज ने का प्रयास करें
मधु गुप्ता ने कहा कि अपनी अनूठी व बेमिसाल लोकपरम्परा व लोककला के कारण ही मालवा क्षेत्र की देश में एक विशिष्ट पहचान है। यहीं की गौरवमयी संस्कृति की सौम्य सहज व सुखद अभिव्यक्ति का पर्व है– संझा !
संझा कुंवारी कन्याओं का अनुष्ठानिक पर्व है…….

धार्मिक मन्यतानुसार संझा माता गौरा ‘पार्वती’ का ही रूप है कहा जाता है कि माता पार्वती जी ने भगवान शिव को वर के रूप में प्राप्त करने के लिए खेल- खेल में इस पर्व को प्रतिष्ठापित किया था इसी कारण कुँवारी कन्याओं को भी सुयोग्य वर प्राप्त हो एवं उसका भविष्य मंगलमय व समृद्धिदायक हो इसलिए यह पर्व कन्याओं द्वारा मनाया जाता है। यह भी कहा जाता है कि 16 दिन संझा माता अपने मायके आती है, और उनकी सहेलियाँ उनके साथ हँसी ठिठोली करते हुए यह पर्व मनाती है।
भाद्रपद मास की शुक्ल पूर्णिमा से पितृमोक्ष अमावस्या तक कुंवारी कन्याओं द्वारा यह पर्व मनाया जाता है, जो मालवा, निमाड़, राजस्थान, गुजरात मध्यप्रदेश आदि इलाकों में ज्यादा प्रचलित है। इन 16 दिनों तक रोज कन्यायें ‘साँझ’ समय पर दीवारों पर गोबर से प्रतिदिन अलग- अलग आकृतियां बनाकर रंग बिरंगी पन्नियों से सजा कर पूजा अर्चना करती हैं, प्रचलित गीत गाती हैं, आरती कर भोग लगाती हैं। साँझ समय पर पूजा अर्चना करने के कारण भी इसे संझा कहा जाता है। अंतिम दिन अमावस्या को नदी तालाब में इसे विसर्जन करने की परंपरा है।
संझा पर्यावरण को समर्पित एक लोकपर्व है। यह पर्व प्रकृति की देन फल फूल, गोबर, नदी तालाब आदि के देख रेख के साथ ही इन चीज़ों को संजोने की प्रेरणा भी देता है।
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि पूर्णिमा से प्रारंभ होने वाले इस सुमधुर, सौम्य, सुरीले पर्व की गरिमा और उत्कृष्टता आधुनिकता के कांटों से बचकर आज भी अपनी महक और चमक को यथावत रखे हुए हैं। चाहे शहरी कन्याओं के लिए यह त्यौहार अब कुछ ‘odd’ हो लेकिन मालवा संस्कृति में पली बढ़ी हम जैसी कन्याओं के लिए यह पर्व आज भी विवाहोपरांत भी यादगार बन गया है। आज भी बचपन में गाये वो गीत जुबान पर आ ही जाते हैं।”संझा तू थारे घर जा,थी बै मारेगा, कुटेगा।”………….ओपी पोरवाल ने कहा कि संझा पर्व हमारी लोक संस्कृति का पर्व हैं पुरातन काल से यह चला आ रहा हैं हमने भी इसे अपने परिवार में मनते हुये देखा हैं, वैसे यह लड़कियों का पर्व होता हैं परन्तु बाल्य काल में लड़के भी इस पर्व को मनाने में सहभागिता रखते थे, गाय का गोबर इकठ्ठा करना, उनसे दिन अनुसार अलग अलग आकृति में संझा बनाना, व गुलतावड़ी के रंगीन फूलों व सिल्वर व अन्य रंग बिरंगी पन्नीयो से सजाना, समूह में संझा के गीत गाना और अलग अलग प्रकार के भोग लगाना, मोमबत्ती से आरती करना,बचपन की यादो में यह सब शामिल हैं,संझा उद्यापन पर बांस की छोटी सी टोकरी में सिक्का व लड्डू रखकर वितरित किये जाते थे, लोक संस्कृति से शहरी नवीन पीढ़ी को जोड़ना अति आवश्यक हैं,।
कविता चौधरी ने कहा कि संजा पर्व प्रतिवर्ष भाद्रपद माह की पूर्णिमा से आश्विन मास की अमावस्या तक अर्थात् पूरे श्राद्ध पक्ष में 16 दिनों तक मनाया जाता है। धार्मिक मान्यतानुसार संजा माता गौरा का रूप होती है, जिनसे अच्छे पति पाने की मनोकामना की जाती है। कई स्थानों पर कन्याएं आश्विन मास की प्रतिपदा से इस व्रत की शुरुआत करती हैं।

श्राद्ध में इस उत्सव को मनाने के पीछे कारण यह माना जाता है कि इन दिनों देवी पार्वती अपनी मायके लौटती हैं। लोकगीतों के बोल से यह भी पता चलता है कि संजा माता विवाह उपरांत ससुराल में ज़्यादा समय तक प्रसन्न नहीं रह पाई हैं। निमाड़ में यह रीति है कि विवाह के बाद प्रथम वर्ष स्त्रियां संजा का पूजन नहीं करती हैं। प्रकृति का उत्सव है संजा वैसे तो महिलाओं और उत्सवों के बीच गहरा सम्बंध है। उत्सवों में उत्साह और रस, दोनों स्त्रियों से ही हैं, लेकिन संजा-उत्सव की विशिष्टता यह भी है कि यह महिलाओं को प्रकृति और पर्यावरण से जोड़े रखने का कार्य भी करता है। संजा को रूप देने में आधार गाय का गोबर होता है और उसे पूरित फूल-पत्तियां करती हैं। इसी तरह कच्ची-पक्की दीवारों पर एक कला जन्म लेती है। प्रत्येक दिन एक नई आकृति का निर्माण होता है जिसमें पूनम के दिन पाटला, दूज को बीजारू, छठ को छाबड़ी, सप्तमी को स्वस्तिक और अंतिम दिन किलाकोट बनाया जाता है।

घर के बाहर, किवाड़-द्वारों पर, भित्ति-कुढयक पर गाय के गोबर को लेकर लड़कियाँ विभिन्‍न कलाकृतियाँ बनाती हैं। सँझा देवी, उसकी बहन फूहङ और खोङा काना बामन के नाम की मुख्य आकृतियां बनाई जाती हैं। उन्‍हें हार, चूड़ियाँ, फूल पत्तों, मालीपन्‍ना सिन्‍दूर व रंग बिरंगे कपड़ों आदि से सजाया जाता है।
नियमित रूप से एकत्रित होकर संध्‍या समय उनका पूजन किया जाता है। घी का दीया जलाया जाता है। फिर देवी को गीत “सँझा माई जीमले, ना धापी तो ओर ले, धाप गी तो छोड़ दे” गाकर मीठे व्यञ्जनों का भोग लगाते है एवं उपस्थित सभी को प्रसाद वितरित करते हैं। फिर लोकगीत गाते है बाजे बजाते है और सभी बहुत नाचते है।

अन्त के पाँच दिनों में हाथी-घोड़े, किला-कोट, गाड़ी आदि की आकृतियाँ बनाई जाती हैं। सोलहवें दिन अमावस्या को सँझा देवी को भीत से उतारकर मिट्टी के घड़े में बिठाया जाता है। उसके आगे तेल-घी का दीया जलाते हैं। फिर सभी मिलकर सँझा देवी को गीतों के साथ विदा करने जाते हैं। संजा पर्व को लेकर नूतन मजावदिया ने कहा कि सांझी को मां दुर्गा का ही रूप माना जाता है और साझी नामक यह पर्व उत्तर भारत का लोकप्रिय त्यौहार है जिसे भारतीय लोक संस्कृति का आईना भी माना जाता रहा है नवरात्रों के दौरान 9 दिन तक शक्ति के रूप में सांझी की विधिवत् पूजा की जाती है इसी प्रकार संजा को मां दुर्गा का ही स्वरूप माना जाता है । परिचय परीक्षा में अन्य सदस्यों ने भी प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष सहभागिता की आभार राकेश पोरवाल ने माना ।

By V meena

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