रतलाम iv न्यूज


भारतीय संस्कृति परम्परा और तीज त्यौहारों में खेलो का भी बड़ा महत्व है । इन खेलों में यदि पतंगबाजी और गिल्ली डंडा की बात करें तो इन खेलों के लिये मकर संक्रांति का इंतजार किया जाता हैं । लेकिन समय के साथ सब कुछ बदलता जा रहा है । अब यह खेल भी रस्मअदायगी के लिए या सोशल मीडिया में फोटो अपलोड करने का मध्य बने हुए हैं ।

” दे भाई ठील ये काटा .. का शोर होते ही मालवा अंचल में राखी पर्व पर आसमान में पतंगे छा जाती है,लेकिन अनेको जगह  पतंगबाजी मकर संक्रांति पर्व पर उड़ान भरती हैं । पतंगबाजी का यह शौक भी अब महंगाई की मार से पीड़ित है । वहीं मोबाइल के तेजी से बड़े चलन ने इस शौक को कम सा कर दिया है ।
शहर में पतंग के व्यापारी पतंग मंगवाते है , लेकिन महंगाई ने इस व्यापार और शौक को चुनोती दे दी है ।  शहर में 3 रुपये से लेकर 200 रुपये तक कि पतंग मिल जाती है । इन पतंगों में  मटका पतंग नई डिजाइन के साथ पतंगबाजी के शौकीनों को आकर्षित करती है ।  दिल्ली , अहमदाबाद , जयपुर से पॉलीथिन पतंगे लाई जाती है जो बारिश में भी शौकीनों के शौक को पूरा करती है । कागज़ की पतंगों का निर्माण बहुत कम हो गया है, अब जिलेटिन पेपर की डिजाइनेट पतंग आसमान में उड़ने भरती हैं। हर पतंग पर एक रुपये से लेकर 15 रुपये तक के भाव बड़े है ।  पतंग उड़ाने के लिये अब कोई मज़ा सुतवाने नही जाता है तैयार डोर ने सुविधा दी है । बरेली का पांडा डोर अधिक खरीदी जाती है । चाइना की डोर भी प्रतिबंध है लेकिन बाजार में बिक्री हो रही है जिसे पतंगबाजी के शौकीन पसंद नहीं कर रहे है । हाल ही में चाइना की डोर ने धार में एक मासूम की जान ले ली है। पतंग व्यापारीयो का कहना है कि लाखों रुपए की पूंजी लगा कर पतंग , डोर बिक्री के लिये लाये है , लेकिन इस बार पतंग का व्यापार उठाव पर नही है , मंहगाई सबसे बड़ा कारण है । 
— अब नही गूँजता  ” दे भई ठील ये काटा ” का शोर
जिले में पतंगबाजी धीरे-धीरे लुप्त होने के कगार पर है। आधुनिक संचार क्रांति के युग में मोबाइल फेसबुक व वाट्सएप और आज कल की दिनचर्या ने पतंगबाजी के खेल से युवाओं का मोहभंग कर दिया है। मकर संक्रांति जैसे पर्व पर पहले खूब जिले में पतंग उड़ाई जाती थी लेकिन अब कोई पतंग उड़ाना गुजरे जमाने की बात हो गई है। आज कल के युवाओं को पतंग उड़ाना भी नहीं आता है।
— आधुनिक युग लील गया पतंगबाजी का शौक
पतंगबाजी धीरे-धीरे लुप्त होने के कगार पर है। आधुनिक संचार क्रांति के युग में मोबाइल, फेसबुक व वाट्सएप और आजकल की दिनचर्या ने पतंगबाजी के खेल से युवाओं का मोहभंग कर दिया है। मकर संक्रांति जैसे पर्व पर पहले खूब जिले में पतंग उड़ाई जाती थी, लेकिन अब कोई पतंग उड़ाना गुजरे जमाने की बात हो गई है। आजकल के युवाओं को पतंग उड़ाना भी नहीं आता है। एक समय था जब पतंगबाजी के शौकीन मकर संक्रांति के पहले ही तैयारियों में जुट जाते थे । डोर सुतन , टोलियां बनाने के साथ ही पतंगे भी गुजरात के राजकोट से मंगाते थे


— लोहड़ी के बाद  मकर संक्रांति का पर्व हर्षोउल्लास से मनाया जाएगा। करीब पांच साल पहले तक मकर संक्रांति एवं लोहड़ी के पर्व को देखते हुए युवा व बड़े युवा व बड़े खुले मैदान व छतों से पतंग उड़ाकर जमकर लुत्फ उठाते थे। मकर संक्रांति व बसंत पंचमी पर तो हवा के झोकों के बीच पतंगबाजी का खेल बेहद शौक से हुआ करता था। एक दूसरे की पतंग काटकर युवा खुश हुआ करते थे। सालों पहले छोटे बच्चे प्लास्टिक की हल्की पन्नियों की खुद-ब-खुद पतंग बना लेते थे। देशी कारीगर कागज व प्लास्टिक की पतंग तैयार करते थे, जबकि कच्ची सूत को नीला थोथा, मोम आदि से पक्का कर मांझा तैयार कर लेते थे। अधिक तेज मांझा तैयार करने के लिए कांच का इस्तेमाल भी कर लिया जाता था, लेकिन इसे बड़े ही प्रयोग करते थे। आधुनिक दौर में धीरे-धीरे बढ़ी व्यस्तता और संचार क्रांति के युग में फेसबुक व वहाट्सएप ने पतंगबाजी के खेल से युवाओं का मोहभंग कर दिया है। कई साल पहले तक पतंग के शौकीन युवा अब मोबाइल फोन में गेम खेलने पर जोर देते हैं,
— मंहगाई की डोर में उलछी है पतंग
पतंगबाजी का यह शौक भी अब महंगाई की मार से पीड़ित है । शहर में पतंग के व्यापारियों ने बड़ी मात्रा में पतंग मंगवाई है , लेकिन महंगाई ने इस व्यापार और शौक को भी चुनोती दे दी है ।  शहर में 3 रुपये से लेकर 200 रुपये तक कि पतंग उपलब्ध है । पतंग व्यापारी मोहम्मद इरशाद का कहना है कि लाखों रुपए की पूंजी लगा कर पतंग , डोर बिक्री के लिये लाये है , लेकिन इस बार पतंग का व्यापार उठाव पर नही है , मंहगाई सबसे बड़ा कारण है ।

By V meena

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